मन की हल्दीघाटी में,
राणा के भाले डोले हैं।
यूँ लगता है चीख चीख कर,
वीर शिवाजी बोले हैं।।
पुरखों का बलिदान, घास की
रोटी भी शर्मिंदा है।
कटी जंग में राणा सांगा की,
बोटी बोटी शर्मिंदा है।।
खुद अपनी पहचान मिटा दी,
रोटी के भूखे पेटों ने।
टोपी जालीदार पहन ली,
कायर हिंदुओं के बेटों ने।।
सिर पर लानत वाली छत से,
खुला ठिकाना अच्छा था।
टोपी गोल पहनने से तो बेहतर,
मर जाना ही अच्छा था।।
मथुरा अवधपुरी घायल है,
काशी घिरी कराहों से।
यदुकुल गठबंधन कर बैठा,
कातिल नादिरशाहों से।।
कुछ वोटों की खातिर लज्जा,
आई नही निठल्लों को।
कड़ा-कलावा और जनेऊ,
बेंच दिया कठमुल्लों को।।
मुख से आह तलक न निकली,
धर्म ध्वजा के फटने पर।
नाही आंसू छलकाए तुमने,
गौ माता के कटने पर।।
यूँ लगता है पूरी आज़म की,
मन्नत होने वाली है।
हर हिन्दू की इस भारत में,
अब सुन्नत होने वाली है।।
जागे नही अगर हम तो ये,
प्रश्न पीढियां पूछेंगी ?
बंदुक पकडे हुए बेटे और
बुर्के से लदी बेटियाँ पूछेंगी ?
बोलेंगी हे आर्यपुत्र इक,
अंतिम उद्धार किया होता।
खतना करवाने से पहले ही,
हमको मार दिया होता।।
सोते रहो सनातन वालों,
तुम सत्ता की गोदी में।
रहो देखते गलतियाँ बस,
अपने ही विरोधी में।।
साँस आखिरी तक भगवा की,
खातिर लड जाऊँगा मैं।
शीश कलम करवा लूँगा पर,
कलमा पढ़ न पाऊंगा मैं।।
✍️कृष्णा पांडे

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